परिवार का केंद्रबिंदु मैं हूं। परिवार के सपनों की धरोहर मैं हूं। लग्न-कुंड में अर्पित की जाने वाली आहूति का अमृत मैं हूं। मैं माता-पिता के प्रेम का साक्षात्कार हूं। परिवार के प्रभात का प्रकाश हूं मैं। घर के ड्रॉइंग रूम का कोलाहल मैं हूं। प्रतिपल की चिंता-फ़िक्र और आश्चर्य भी मैं ही हूं।
माँ, तेरी आँखों का तेज मैं हूं। तेरे गालों के डिम्पल में छिपा हुआ रहस्य मैं हूं। तेरी पलकों पर ओस की नमी मैं हूं। तेरे होठों पर महकती मुस्कान मैं हूं। तेरे बालों में झलकता सौंदर्य मैं हूं। तेरे पल्लू से बंधी प्रीत मैं हूं। तेरे संबंधों का गुरुत्वाकर्षण बल भी मैं हूं।
पप्पा, आप के पसीने में बहता सत्य मैं हूं। आप के आयोजन का केंद्र मैं हूं। आप के समर्पण का सोता मैं हूं। आप के परिश्रम के पीछे छिपा हुआ सत्त्व मैं हूं। वह मैं ही हूं जो बरसों तक आप को व्यस्त रखता है।
समाज जिसे वंश कहता है, वह मैं हूं। समाज जिसे दृष्टि कहता है, वह मैं हूं। समाज को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली आशा की डोर भी मैं हूं। समाज के मंच पर तालियों की गूंज मैं हूं। समाज के मंच पर संगीत का नृत्य मैं हूं। उनकी प्रार्थना का स्वर-साध्य मैं हूं। उनके मनोरंजन को भिगोने वाला रसनिधि मैं हूं। समाज की सुनहरी किरण की मध्यम तपिश मैं हूं।
कक्षा की वेदी पर चढ़ाई गई बलि भी मैं हूं। शिक्षक की अविरत वाणी को ग्रहण करने वाला मूक-बधिर भी मैं हूं। उनकी आँखों में बसे ख़्वाब को साकार करने वाला पारसमणि मैं हूं। उनके आदर्श का दर्पण मैं हूं। उनकी विद्या को वहन करने वाला योगी भी मैं ही हूं। उनकी जानकारी के ख़जाने को उठाने वाला मजदूर भी मैं हूं। शिक्षक की अस्मिता का अमृत मैं हूं।
स्कूल के प्राण का संवाहक मैं हूं। उसकी जिजीविषा मैं हूं। उसके संगीत की नाद और नृत्य की झंकार मैं हूं। गौरव पुरस्कारों का अधिष्ठाता मैं हूं। उसके ललाट पर समता का तिलक मैं हूं। स्कूल के अतीत का प्रतिघोष भी मैं हूं। वह मैं ही हूं, जिसके पदचिह्नों पर कदमताल करते हुए स्कूल शोहरत की बुलंदियों पर तेजी से बढ़ती चली जाती है।
मैं सर्वस्व हूं, फिर भी लाचार हूं, मायूस हूं। समग्र चक्रव्यूह का रहस्य मैं हूं, बावजूद इसके कठघरे में खड़ा अपराधी भी मैं हूं। मुस्कान जो खिल नहीं पाई उसकी राख मैं हूं। आप चाहे डांटें, अपमानित करें या फिर दंड दें, फिर भी आप के पीछे-पीछे चलते हुए सर-सर की पूकार लगाने वाला मासूम चेहरा मैं हूं। आपकी हंसी के साथ हंसता तो हूं, फिर भी इस समग्र व्यवस्था का केंद्रबिंदु होने के बावजूद कंक्रीट के जंगल समान आप के आयोजनों में मेरी आवाज़ कहीं सुनाई नहीं पड़ती, तो फिर मैं कहां हूं?
समाज जिसे वंश कहता है, वह मैं हूं। समाज जिसे दृष्टि कहता है, वह मैं हूं। समाज को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली आशा की डोर भी मैं हूं।