माँ जब आसपास होती है तब बच्चा निहायत ही बेफिक्र होता है। लेकिन माँ का एक मिनट के लिए भी उसकी नजरों से ओझल होना उसे गंवारा नहीं होता। बच्चे को समझाए या बताए बगैर या फिर अचानक हॉस्पिटल या दूसरे शहर जाना हो तब बच्चा मानसिक रूप से बेचैनी का अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में दुनिया का कोई भी प्रलोभन उसे आनंद प्रदान नहीं कर सकता। इसलिए ही जब बच्चे से जुदा होना हो तब उसे समझाना-बुझाना अत्यंत जरूरी होता है। कई बार खिलौनों के प्रदर्शन के जरिए भी इसे समझाया जा सकता है।
- अक्सर ऐसा देखा जाता है कि बच्चे को चुप कराने या उसे नियंत्रित करने के लिए माता बच्चे को डराती है। भूत, बाबा या राक्षस जैसे काल्पनिक पात्रों के नाम पर बच्चे के मन में पैदा किया गया यह डर उसके अचेतन मन पर अत्यंत घातक असर डालता है।
- बच्चा जब कोई कार्य करने जा रहा होता है तब ‘तू नहीं कर सकता’, ‘उससे नहीं जमेगा’, ‘यह काम तेरा नहीं है’ और ‘तुझे कठिनाई होगी’ जैसी नकारात्मक सलाह या फिर दो संतानों के बीच माता-पिता द्वारा खड़ा किया गया प्रतियोगिता का माहौल बच्चे को डरपोक, नकारात्मक, हताश, अंतर्मुखी और असफल बनाता है।
- हर छोटे-बड़े मामलों में सहायता करने का रवैया, सोसायटी के बच्चों के साथ खेलने से मेरा बच्चा बिगड़ जाएगा, ऐसी संकीर्ण मानसिकता, बच्चे के दोस्तों की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति, बच्चे के खिलौने एवं अन्य चीजों को स्वयं के नियंत्रण में रखने का रवैया जैसी बातें बच्चे की रोजमर्रा की जीवनशैली पर बुरा प्रभाव डालती है।
- बच्चे को हमेशा सुरक्षा कवच में रखना, गिरने या चोट लगने के काल्पनिक भय से उसे डराना, बाहर न जाने देना, यात्रा या पिकनिक पर जाने से रोकना, ट्रेकिंग कैम्प में जाने से रोकना और खेलकूद में भाग न लेने देने जैसा माता-पिता का रवैया बच्चे को ढीला-ढाला और कायर बनाता है।
- परीक्षा में अच्छे नंबर लाने का दबाव, खास प्रकार के परफार्मेंस का दबाव, माता-पिता की अपेक्षा का दबाव बच्चे को परीक्षा या प्रतियोगिता से पहले ही डरा देता है। इसलिए अकुशल माता-पिता बच्चे को भूल होने की संभावनाओं के बारे में बताने के बजाय परिणाम के डर से उसे दबा देते हैं। माता-पिता यह नहीं जानते कि कई बार बच्चा असफलताओं में से ही बहुत कुछ सीखता है। अतः ऐसे हालात बच्चे का आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, धैर्य और असफलता में टिके रहने की उसकी क्षमता को चूर-चूर कर देते हैं।
- माता-पिता को इतना समझना चाहिए
बच्चे प्रकृति का उपहार होते हैं। उसे वापस लौटाकर दूसरा नहीं लिया जा सकता। इसमें कोई एक्सचेंज ऑफर भी नहीं है। उन्हें स्वीकार करना ही होगा और बजाय उन्हें बदलने के हितकारी यह होगा कि माता-पिता स्वयं थोड़ा बदल जाएं।
- बच्चे प्रेम की भाषा समझते हैं, गुस्से की नहीं
1. गुस्से के जरिए बच्चे को फौरन नियंत्रित तो किया जा सकता है लेकिन यह दीर्घकालिक समस्याएं पैदा करने का सरल साधन है।
2. बच्चे कथा-कहानी का सॉफ्टवेयर स्वीकारते हैं।
3. दस वर्ष की उम्र तक बच्चे जीवन का अहम दृष्टिकोण सीख जाते हैं। इस दौरान बच्चों को मूल्य, आदत, अच्छी आदतें या जीवन का लक्ष्य कथा-कहानी या उसके पात्रों के जरिए जल्दी सिखाया जा सकता है।
बच्चा आपके पर्यावरण का उत्पादन है। बच्चे कभी खराब नहीं होते और न ही खराब जन्म लेते हैं। बच्चों की जिन समस्याओं का आप विरोध करते हैं वह आप ही के द्वारा, आपके रवैयों के द्वारा, आपके पर्यावरण के द्वारा खड़ी की गई परिस्थिति है।
- झूठे बच्चे, परिणाम का शिकार
परिणाम के डर से, परिणाम देखने के बाद माता-पिता की प्रतिक्रिया से, परिणाम को लेकर माता-पिता की अपेक्षाओं से और सत्य न स्वीकार करने की माता-पिता की मुर्खता के चलते बच्चे बेझिझक झूठ बोलना सीख जाते हैं। झूठ बोलने से खराब नतीजों से मुक्ति मिलती है, झूठ बोलने से रिलेक्स हो जाते हैं, माता-पिता को सच नहीं चिकनी-चुपड़ी बातें पसन्द हैं। बच्चे की इस तरह की मनोवृत्ति उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है अथवा माता-पिता के नकारात्मक रवैये के पूर्वानुमान की वजह से भी बच्चे झूठ बोला करते हैं।