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जैसी क्रिया, वैसी प्रतिक्रिया

जैसी क्रिया, वैसी प्रतिक्रिया

समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। बहुत बड़े घरों में संबंधों की संकीर्णता भी ज्यादा होती है। जब कभी समूचा परिवार एक साथ भोजन के लिए बैठता है तो लगभग वह होटल की मेज पर होता है। अमिताभ बच्चन या बिल गेट्स के परिवार की ख़बर रखने वाला व्यक्ति अपने ही परिवार की ख़बर से मीलों दूर होता है। हिमालय की चढ़ाई कर चुका पिता कई बार अपने बच्चे के मन तक नहीं पहुंच सकता। वृद्धाश्रमों की भऱमार के बीच आज माता-पिता और बच्चे का संबंध अतीत की बात प्रतीत होता है। माता-पिता से दूर भागकर संबंधों की गर्माहट ढूंढने वाले बच्चे असफल परिवार की चुगली करते हैं। संबंधों की कटुता पर खड़ी फसल को काटने के लिए आतुर लोगों की भीड़ भी यहां नजर आती है, और इसलिए ही मुझे लगता है कि माता-पिता को चाहिए कि बच्चे के साथ अपने संबंधों की गर्मजोशी को बरकरार रखने के लिए बच्चे को संतान मानते हुए वे स्वयं का पालक बनना जरूरी समझे।

संतानों के लिए दिन-रात एक करने वाले माता-पिता कई बार पांच-दस मिनट के लिए संबंधों को दांव पर लगा देते हैं। संतानों के लिए सब कुछ लुटाने को तत्पर माता-पिता कई बार सो-दो सौ रूपये की खातिर हिसाब-किताब के दुराग्रह में फंस जाते हैं। संतानों के लिए मीलों तक का सफर पैदल ही तय करने वाले माता-पिता कई बार उसके साथ दो कदम चलने के नाम पर टालमटोल कर संबंध तोड़ने को आतुर बन जाते हैं। संतानों की खातिर एक वक्त बिना खाना खाए चला लेने वाले माता-पिता चॉकलेट या आइसक्रीम के लिए बच्चों पर हाथ उठाते हैं। अपने संतानों की प्रशंसा करते नहीं थकते माता-पिता कई बार दो-चार प्रतिशत अंकों के लिए बच्चों पर क्रोधित होते हैं।

मुझे लगता है कि माता-पिता की उपस्थिति से दूर भागने वाले बच्चे, अपने मन की बात साझा करने के लिए दोस्त के भावनात्मक सहारे की खोज में रहने वाले बच्चे, अपने प्रोग्रेस कार्ड में लिखे अंकों को स्वयमेव सुधारने वाले बच्चे, स्वयं को लेकर स्कूल में हुई शिकायतों को छिपाने वाले बच्चे, अपनी पसन्द-नापसन्द व्यक्त करने के लिए स्वतंत्रता का इंतजार करने वाले बच्चे, ऑफिस से आने वाले अपने पिता से मिलने के बजाय घर के एक कोने में छिपकर बैठना पसन्द करने वाले बच्चे के माता-पिता को स्वयं में बदलाव लाने की जरूरत है। यह भी जरूरी है कि वे इन मामलों के पीछे स्वयं के जिम्मेदार होने के कारणों की तलाश करें।

माता-पिता यदि आसानी से झूठ कहते हों तो बच्चा भी झूठ बोलना सीख जाता है।

से बच्चा ढीठ बन जाता है। यदि बच्चे को लगातार किसी काम के लिए लालच दी जाए, तो वह लालची बन जाता है। यदि उसे कोई कार्य करने से रोका जाए, तो वह डरपोक बन जाता है। यदि बच्चे को ज्यादा लाड-प्यार किया जाए, तो वह जिद्दी बन जाता है। बच्चे को यदि एक हद से ज्यादा स्वतंत्रता दी जाए, तो वह स्वच्छंदी बन जाता है। बच्चे की बुरी आदतों को सुधारने के लिए धमकी भरा रवैया अपनाने से उसकी बुरी आदतें बढ़ती जाती है। यदि बच्चे को लगातार टोका जाए, तो वह जड़ बन जाता है। बच्चा यदि कोई अच्छा कार्य करे और उसकी सराहना न की जाए, तो उसका आत्मविश्वास घट जाता है। इसी तरह, कोई अच्छा कार्य करने पर बच्चे को यदि प्रोत्साहन रूपी दो शब्द कहें, तो उसकी शक्तियां स्वाभाविक रूप से खिलने लगती हैं। घर में यदि शांत वातावरण बनाकर रखा जाए, तो बच्चा प्रसन्नापूर्वक काम करता है। यदि माता-पिता सेवाकार्य में रुचि लें, तो बच्चे में भी सेवा का भाव पैदा होता है। बच्चे से आदर-सम्मान के साथ बातचीत करने पर उसमें स्वाभिमान का भाव जागृत होता है। यदि बच्चे को प्रेम की भाषा सीखाई जाए, तो वह सभी के साथ प्रेमभाव से बात करता है। लोगों के बीच उसका मजाक उड़ाने पर उसमें हीन भावना पैदा होती है। बच्चे की मौजूदगी में यदि माता-पिता झूठ का आसरा लेंगे, तो बालक भी उनका अनुकरण करते हुए झूठ बोलने वाला बन जाता है। अविश्वास या लाड-प्यार की वजह से बच्चे का सारा काम उसके माता-पिता द्वारा करने पर वह बच्चा सदैव के लिए परावलंबी बन जाता है। बच्चे के आवश्यक कार्यों के लिए भी समय न निकाल सकने वाले व्यस्त माता-पिता के बच्चे चिड़चिड़े स्वभाव वाले होते हैं। बच्चे की जरूरत की कोई चीज अगर उसे लाकर न दी जाए, तो वह चोरी करने को प्रेरित होता है। यदि माता-पिता स्वयं बुजुर्गों को मान-सम्मान देंगे, तो बच्चे भी सम्मान करना सीखेंगे।

बच्चों के साथ तिरस्कार भरा व्यवहार करने के चलते वे अक्खड़-अविनीत बन जाते हैं। जो माता-पिता बच्चे के साथ बच्चा बनना सीख जाते हैं, वे माता-पिता बच्चों के साथ आत्मीयता का सेतु रचने में सफल होते हैं। बच्चों को ज्ञान व सीख देने वाली कहानी सुनाने से उनकी सृजनात्मक शक्ति में बढ़ोतरी देखने में आती है। माता-पिता द्वारा खड़े किए गए क्लेश के माहौल के बीच पले-बढ़े बच्चों में झगड़ालु वृत्ति नजर आती है। यदि माता-पिता अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करेंगे, तो बच्चे का विकास अवरुद्ध होगा। बच्चे को मनमाने तरीके से पैसे खर्च करने के लिए दिए जाने पर बच्चा पैसे के मूल्य की उपेक्षा कर अपव्ययी बन जाता है। यदि बालक के साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जाए तो हम पाते हैं कि इससे बच्चे का स्वभाव शांत होता है। ममतामय वातावरण की छांव में पले-बढ़े बच्चे स्नेहिल बनते हैं। यदि बालक के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार होता है, तो उसका सामना न कर पाने की क्षमता के कारण बच्चे क्रोधी बनते हैं। यदि माता-पिता घर पर संयमपूर्ण जीवनशैली अपनाएं तो बच्चा भी अनुशासन के पथ पर चलता है। घर पर यदि सभी एक-दूसरे की मान-मर्यादा रखें तो बालक भी मर्यादा के गुणों को आत्मसात करता है। बच्चे को नियमित रूप से मंदिर ले जाने से उसमें धार्मिक भावना का विकास होता है। घर पर सभी की दिनचर्या व्यवस्थित हो तो बच्चा भी व्यवस्थाप्रिय बनता है। पर्वत, नदी एवं वृक्ष जैसे प्राकृतिक वातावरण के सानिध्य में बच्चा व्यापक दृष्टि एवं प्रकृति प्रेम के भाव वाला बनता है। इसी तरह, यदि घर में गाय-कुत्ते को रोटी खिलाने की परंपरा हो तो बचपन से उसमें जीवदया का विकास होता है। घर पर आने वाले अतिथियों के प्रति यदि माता-पिता आतिथ्यभाव प्रदर्शित करते हैं तो बच्चा स्वयं विवकी बनता है।

विपरीत परिस्थितियों के बीच भी बच्चों के साथ संबंध को सतत् मजबूत बनाने के लिए स्वयं हमें अपने रवैये में परिवर्तन लाना होगा। हमें ही यह सीखना होगा कि सहनशीलता रूपी सीमेन्ट, भावना रूपी रेती एवं संवेदना रूपी पानी के मिश्रण से ही संबंधों की बुनियाद सुदृढ़ बनेगी।

यदि बच्चे को ज्यादा लाड-प्यार किया जाए, तो वह जिद्दी बन जाता है। बच्चे को यदि एक हद से ज्यादा स्वतंत्रता दी जाए, तो वह स्वच्छंदी बन जाता है।

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