- माता-पिता जब बच्चे को सही तरीके से समझ सकें तब।
- माता-पिता जब अपनी अपेक्षाओं को नियंत्रित करें तब।
- माता-पिता जब बालक के अनुकूल बनने का प्रयत्न करें तब।
- माता-पिता जब बच्चे को क्वालिटी टाइम दे सकें तब।
- माता-पिता जब बालक के भीतर छिपी हुई शक्तियों को पहचान सकें तब।
- माता-पिता जब बच्चे को विकास का पूरा अवसर प्रदान करें तब।
- माता-पिता जब अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों से बाहर निकलकर बच्चे के साथ व्यवहार करें तब।
- माता-पिता जब बच्चे की असफलता के दौरान उसके मददगार बन सकें तब।
- बच्चे की आवाज को सुन सकें तब।
- बच्चे की बुरी आदतों को समझबूझ के साथ सुधार सकें तब।
- बच्चे का मूल्यांकन मात्र परीक्षा के नतीजों से न करें तब।
- बच्चे के साथ बच्चा जैसा बन सकें तब।
- बच्चे के मन तक पहुंच सकें तब।
- बच्चे के सुधारक नहीं वरन् उसके रोलमॉडल बन सकें तब।
- बच्चे की उम्र के साथ-साथ उसकी परिपक्वता के मापदंड जानते हों तब।
- अपार धैर्य का गुण विकसित कर सकें तब।
- अपनी संतानों की तुलना अन्य बालकों से करना बंद करें तब।
- स्वयं को बदलने की तैयारी हो तब।
- जब बालक के पालन-पोषण के लिए नए विचार एवं रीतों को स्वीकार कर सकें तब।
- बालक ईश्वर का प्रसाद है, ईश्वर का स्वरुप है, यह मानते हुए माता-पिता उसके साथ व्यवहार करें तो बालक का पालन-पोषण ऐसे परिवारों के लिए जिम्मेदारी या बोझ नहीं बल्कि सहज-आनंद (सहजानंद) बन जाता है।
बालक के पालन-पोषण के अंतर्गत महज अध्ययन करने से ही बच्चे की प्रगति नहीं होती। उसके शरीर, मन, रस, अभिरुचि, कला, शौक, कल्पना शक्ति, तंदुरुस्ती एवं दुनिया को देखने की उसकी दृष्टि को विकसित करने की जवाबदारी शिक्षा से भी ऊपर है।
सबसे ऊपर है बच्चे में मूल्यों का निर्माण, जो बालक ज्यादातर स्वयं नहीं सीखता अपितु परिवार के व्यवहार, रहन-सहन, भाषा एवं मूल्यों से सीखता है।
यदि बालक का किसी भी प्रकार का विशिष्ट निर्माण करना हो तो, ‘कैच देम यंग’ के सूत्र को याद रखना चाहिए। बचपन में यानी कि ३ से १२ वर्ष के दौरान बच्चे द्वारा देखी गई, अनुभव की गई, समझी गई और स्वीकार की गई बाबतों का असर ताउम्र रहता है। परन्तु १२ वर्ष की उम्र के बाद सिखाए जाने वाले मूल्यों, संस्कारों और आदतों को टिकाए रखने में गंभीर प्रयास की जरूरत पड़ती है।
१२ वर्ष की उम्र तक का शैशव मन सब कुछ भरोसे से स्वीकार करता है। १२ वर्ष के बाद वह अनुकूल अवसर को आंकने के बाद स्वीकारना सीखता है, अर्थात् सीधे-सीधे उसके मन में बात नहीं उतरती। लिहाजा, बाद के समय में सिखाना एक मुश्किल काम है।
बालक ईश्वर का प्रसाद है, ईश्वर का स्वरुप है, यह मानते हुए माता-पिता उसके साथ व्यवहार करें तो बालक का पालन-पोषण ऐसे परिवारों के लिए जिम्मेदारी या बोझ नहीं बल्कि सहज-आनंद (सहजानंद) बन जाता है।